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कविता

इस बुनावट में

आरती


अब तक की बुनावट में
उधेड़े जाने के डर से ढाँपती रही
फीके पड़ न जाएँ सोचकर
रंगती रही बार बार
मौन की लुगदी लगाकर
चिपका दिया होंठों को
जैसे कि चुनरी में पेंचवर्क
ये ढपनी ये रँगाई पुताई
और मौन जैसे अस्त्र शस्त्र
सभी को सहेजने के बाद
एक बात और
इस कमबख्त दिमाग का क्या करूँ?


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हिंदी समय में आरती की रचनाएँ